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मैं और मेरी कविता-भाग 2

साहित्यिक विधा से जुड़े रतलाम शहर के गुणीजन कलमकारों को डिजिटल मंच देने के लिए ‘न्यूज जंक्शन-18: वेब पोर्टल द्वारा ‘मैं और मेरी कविता’ साप्ताहिक कालम की पिछले सप्ताह शुरुआत की गई। इस पहल का बेहतर प्रतिसाद मिला। पहले भाग में मूर्धन्य रचनाकारों की प्रकाशित कविताओं को पाठकों ने बखूबी पसंद किया। भाग 2 के लिए अन्य कवियों की रचनाएं आमंत्रित की गई थी। शहर के अलावा जिले से प्रबुद्ध रचनाकारों ने अपनी कविताएं भेजी। तय है कि शहर में साहित्यिक माहौल की निरंतरता बनी रहेगी। साहित्य टीम द्वारा चयनित कुछ और कविताएं सादर प्रकाशित है।

इस नंबर पर प्रेषित करें
जलज शर्मा
मोबाइल नंबर 9827664010
—–
कविता चयन टीम के प्रमुख:-

*संजय परसाई ‘सरल’*
118, शक्तिनगर ,गली न. 2,
रतलाम (मप्र)
मोबा. 98270 47920

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कितनी सदियां और लगेगी?

हम समझे थे
हिन्दुस्तानी
बंधु तुम तो हिन्दू निकले,
मुस्लिम निकले, सिख, ईसाई,
सिंधु निकले
सरे हाशिया बिंदु निकले

पंजाबी, गुजराती निकले
बंगला और मराठी निकले
तमिल, तेलगु, कन्नड़ निकले
बंधु,
तुम तो गड़बड़ निकले

हम समझे थे हिन्दुस्तानी
बंधु तुम तो क्या कुछ निकले
ये भी निकले,
वो भी निकले
न निकले बस हिन्दुस्तानी
बाक़ी तुम तो सब कुछ निकले

यही सवाल है छोटा सा
जो दिल को चीरे देता है

कितनी सदियां और लगेंगी
तुम को ज्ञानी होने में-
बंधु, हिन्दुस्तानी होने में ?

*यूसुफ़ जावेदी*

—+—

जीवन, पानी का बुलबुला

जीवन, पानी का बुलबुला
पल में श़बाब पर
दूजे पल ओझल
अपने अस्तित्व पर
इतराए भी कितना
क्षणभर के लिए
वाह!
जीवन, पानी का बुलबुला

आँखों को लुभाता
दिल में खुशी की उमंग जगाता
सहेजना चाहो तो
पल में विलय हो जाता
जीवन, पानी का बुलबुला….

हर तरफ है खुशियाँ अपार
समय की अपनी तेज रफ़्तार
यादों की धुंध में खोया
अपनों का प्यार
जीवन, पानी का बुलबुला

डॉ. गायत्री शर्मा
——-

कविता

जैसे दही को
मंथना
शब्दों को
गुथना

जीवन के
जोड़ घटाव में
उलझना
उलझे हुए धागों को
सुलझाना

घटनाओं से
आहत होना
उपमाओं में
खोना
मन को
झकझोरना

सच का सामना
आदि….
आदि…..।

शिव चौहान शिव
183, अष्टविनायक रेसीडेंसी राजबाग-2
रतलाम मध्यप्रदेश
मो. नं.9893608570
——

बहुत भोली

सांवली भी नहीँ हैं वो
गौरी भी नहीँ
जैसी भी हैं
बहुत भोली हैं वो

गांव की पगडण्डी सा
खेत की मुंडेर सा
मन था उसका
कहीं भी चली जाती थी
जैसी भी हैं
बहुत भोली हैं वो

पलास के फूल भी
पावस की धुप भी
पर्वत का शिखर भी
शर्म से नही रुक पाते पास उसके
जैसी भी हैं
बहुत बोली हैं

रंगो में उसका रंग
बातों में उसकी बात
सुर में उसका सुर
हर चीज़ में सुंदर हैं वो
जैसी भी हैं
बहुत भोली हैं वो

नैनो में सपना प्रिया का
गैरो में अपना मेरा वो
कदम से कदम साथ मेरा
हर शब्द सुंदरता बढ़ा जाती हैं वो
जैसी भी हैं
बहुत भोली हैं वो

आती हैं अनायास
मधुमास की तरह
हाथ बढ़ाती
खनखन चुड़ी सुना जाती है वो
नाम अपना प्रिया बताती वो
देख बिंदिया में”देव”
हर रंग सजाती हैं वो
जैसी भी हैं
बहुत भोली हैं वो

✍?।।।।।… देव
+91 9407334127
त्रकधा म्युजिकल ग्रुप
——

जीना है मुझे

पाषाण की दरार से
मंदिर शिखर पर रखे
सुवर्ण कुम्भ को
मत देखो,
उसके नीचे
पाषाण की पतली दरार में
उगे हुए
पीपल के उस पौधे को देखो
क्या उपयोग है उसका?
तुम्हारी दृष्टी में भले ही न हो,
मेरी दृष्टी में बहुत है।
अपनी सुकोमल लाल पत्तियां
हिलाकर कह रहा है,
तेज हवा के झोंको
और
तुफानों से जुझना है
पाषाण के माथे पर
पैर रखकर भी
जीना है
मुझे।

..पद्माकर पागे

——-

होने वाली है सहर…

मुश्किलें भी हैं जीवन का हिस्सा मगर,
मुश्किलों में रखना हौसलों का जिगर,

सच है तू यदि तो डर किस बात का,
कांटों में भी मिल जाएगी तुझे डगर,

बदलती फिज़ा के साथ बदल रहा आदमी
तरक्की की राह पर चल पड़ा है नगर,

कोई ग़म नहीं ‘यश’ जो ना मिले मंजिल,
कोशिशों का दामन छोड़ना नहीं मगर,

अंधेरा नहीं ये रहने वाला हमेशा,
चंद लम्हों में ही होने वाली है सहर,

रचना ©️ यशपाल तंँवर
फिल्म गीतकार

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रास्तों पे चलते चलते

रास्तों पे चलते चलते
कठिनाइयां तो मिलेंगी तुम्हे,
तुम थकना ना तुम रुकना ना
मंजिलों की उचाइयाँ भी मिलेंगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते
ठोकर भी लगेगी तुम्हे,
दर्द होगा तुम रोना ना
दर्द की दवाइयाँ भी मिलेंगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते
धोखेबाजों से भी मिलना होगा,
तुम टूटना ना तुम गिरना ना
अपनो की अच्छाइयाँ भी मिलेंगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते
निराशा भी मिलेगी तुम्हे,
तुम बिखरना ना तुम घबराना ना
आशा भरी ऊचाइयाँ भी मिलेंगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते
सफलता के बाद घमंड से भी सामना होगा,
तुम बहकना ना इतराना ना
सहजता की बुनाइयाँ भी मिलेगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते
परमानंद भी मिलेगा तुम्हे,
झुक जाना तुम शीश नमाना
जीवन की सच्चाईयाँ भी मिलेंगी तुम्हे।

रास्तों पे चलते चलते …….

~ ऐश्वर्या भट्ट { AB }
रतलाम।
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क्या कहूं कैसे कहूं

क्या कहूं कैसे कहूं

मुद्दा ये इतना बड़ा नहीं
बात इतनी सी है कि , सूरज ,
आज अंधकार से लड़ा नहीं
इसका पता जाने कैसे,
एक दीपक को चल गया
अंधकार से लड़ने को ,
उसका दिल मचल गया
सूरज के उगने की राह न देखी ,
अपनी लौ से जो प्रहार किया
एक छोटे से दीपक के सम्मुख ,
घनघोर तिमिर भी हार गया
दीपक के इस प्रयास से बोलो ,
अंधकार कहाँ छंट गया
मगर ये भी सत्य है कि,
वो कुछ हद तक सिमट गया
माना हम सूरज नहीं ,
लेकिन इसका गम नहीं
ये भी तो सोचो कि हम ,
किसी दीपक से कम नहीं
कोई लक्ष्य बड़ा नहीं अगर ,
हम अपनी क्षमता पहचान लें
हर मुश्किल से लड़ सकते हैं ,
मन में यदि हम ठान लें,
मन में यदि हम ठान लें

राजेश धनोतिया ‘राज’
जावरा, जिलारतलाम (म.प्र.)

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