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मैं और मेरी कविता

16 दिवसीय पितृ पक्ष की अमावस्या के बाद एकम से शक्ति की भक्ति शारदीय नवरात्रि में पर्व की शुरुआत लोगों के लिए उमंग व उत्साह लेकर आया है। हमारे रचनाकारों ने पितृ पक्ष के समानांतर चलने वाले पारम्परिक पर्व संजा की बिदाई में कुछ कविताएं प्रेषित की है। साथ ही नवरात्रि की आराधना को लेकर भी रचना पेश की गई है। रचनाओं के माध्यम से हर सप्ताह नए रचनाकार जुड़कर साहित्य सफर के सहभागी बन रहे हैं।
जलज शर्मा
संपादक, न्यूज़ जंक्शन-18
212, राजबाग़ कॉलोनी रतलाम (मप्र)
मोबाइल नंबर- 9827664010

रचनाओं के प्रमुख चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्ति नगर, गली नंबर 2 रतलाम (मप्र)।
मोबाइल नंबर -9827047920
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आराधना

 

शक्ति की भक्ति में, डूब गया जग सारा।
ममता लूटाने दौड़ पड़ी, माता खोल पिटारा।।
रोग शोक तू दूर करें।
मुरादों की खाली झोली भरे।।
कलंक बांज का, मां तू मिटाए।
सूने पलने में, हंसता लाल झूलाए।।
संकटों के बंधन काटे।
खुशियों की सौगातें बांटे।।
दिल से बुलाने पर, आएगी जरूर।
मन की भोली, तनिक नहीं गुरूर।।
आज पूरी होगी, सबकी मनोकामना।
तन-मन से करो, मां की आराधना।।
नवरात्रि उपवासना में ,रहे न कोई भूल।
दयावंती करती है, सब प्रार्थना कबुल।।

-दिनेश बारोठदिनेश
शीतला कॉलोनी सरवन रतलाम
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छब घणी प्यारी लागे

संजाबई झूली रया झूल, छब घणी प्यारी लागे।
संजाबई झूली रया झूल, छब घणी प्यारी लागे।

संजा का माथा को भमर अनोखो,
लड़ी लड़ी रयी झूल, छब घणी प्यारी लागे।
चांद सूरज वीरा वारी जाय, बेनया पे वारे फूल
छब घणी प्यारी लागे।

संजाबई के काना में करणफूल सजया हे, कंठ की कंठी रयी झूल छब घणी प्यारी लागे।
भाभज ने वरसय दिया फूल, छब घणी प्यारी लागे।

संजाबई के पगलया कूंंकू भरया रे, तोड़ी घणी न्यारी लागे।
सयेलिया ने वयरसय दिया फूल, छब घणी न्यारी लागे।

-नारायणी माया
माया मालवेंद्र बदेका
उज्जैन (मप्र)।
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संजा

घणो डरायो बिचारी संजा के-
के संजा तू थारा घरे जा
थारी बाई मारेगा-कूटेगा
डेरी में डचोंकेगा

जाणे वना पूछे मांगाबा के यां
टीवी देखवा ने गई वे संजा
बिचारी संजा कतरी डचकाती
ने कतरी मार खाती
रूठी ने गई कणा करी हेरी में
अबे ढूंढवा तीबी नी मिले
दरवाजा मेरे दिवार पे ने डेरी में
कई संजा चली तो नी गई गुजरात
देखवाने भिलनी का बड़ा-बड़ा दांत

अबे गोबर सगरो छाणा में थेपई जावे
पेला संजा वंचई लेती थी अबे कुण वंचावे
अबे संजा वाते गोबर नी मिले या गोबर बाते संजा
राम जाणे कई वातज हमज में नी आवे
थोड़ा घणा भोराभारा नानियां रा केवाती
अबे भी संजा वणावे
पर वी गोबर की जगा चमकीली चिंदीया चेटावे
अबे संजा वणे कोनी चेटे है
वा भी फेविकोल ती

बूढ़ी ठाणी आंख्यां कदी संजा ने देखे
कदी फाटया थका कागज ने देखे
भलो किदो भगवान
गोबर छुटियो ने कागज आयो
संजा चेटी भी गी
ने नानी बाई रो हाथ नी खड़ायो

अबे संजा भी वाज, गीत भी वीज
पर नी वा संजा की पूजा और नी उ मन है
सब सास बहू, उतरन और कतरन में मगन है
कवि कठे कठे देखे
करे कतरो कतरो जतन
पड़ोसी डरई ने केता था, कवि रोई ने केवे
संजा तू थारा घरे जा
थारी बाई मारेगा-कुटेगा
डेरी में डचोकेगा।

-अखिल स्नेही
243, महेश नगर,
रतलाम (मप्र)।
मोबा. 94066 35357
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ज़िन्दगी के पन्ने

 

कुछ पन्ने थे पुराने ज़िन्दगी के, कुछ नए कोरे,
कोई थे सुनहरे पन्ने, कोई मनहूसियत से भरे।

गिरेबान में झांका तो, मिले कई ऐसे पन्ने,
चाहत रखते-रखते, हुए पुराने कोरे पन्ने।

किसी में थे खिलते सपने , किसी में मुरझाते ख्वाब थे,
खोजता रहा,ढूंढ़ता रहा, पन्नो में दबे कई राज थे।

त्याग था, समर्पण था, पर खामोश थे वो पन्ने,
उम्मीद की किरण में जीते रहे, वो भरोसे के पन्ने।

कई पन्नों के साथ आस ,हवाओं में उड़ गई ।
उड़ गए अरमान, बिखर गई थी तस्वीरें कई

कई पन्नों धूल में मिल गए ,फट गए थे कुछ पन्ने
लिखा न गया उसमे, भीग गए अश्कों से पन्ने।

-मित्रा शर्मा
महू (मप्र)।
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छोटी-छोटी कोशिश

 

बेशक वो
आज के
शिक्षित समाज में
तिरस्कृत कर दी जाती है
उनसे ठीक से बात नहीं करता
सभ्य समाज का कोई
भी व्यक्ति
क्योंकि वो खडाऊं, गेरू, गोबर
और जंगली पत्तियों
से दीवार पर बना देती है
कभी भी कुछ चित्र
और पुराने और देसी भाषा में गाना
गाते-गाते हो जाती है खुश
कौन करता है आज के ज़माने में ऐसा
यह अलग बात है की
इन्ही छोटी-छोटी कोशिश
के कारण आज भी
अरबों-खरबों रुपया खर्च करने के बाद भी
मल्टीनेशनल कम्पनियां
भारत की संस्कृति को ख़तम नहीं कर सकी।

डॉ. दीपा वाडिया
उज्जैन (मप्र)।

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