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मैं और मेरी कविता’

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कविताओं का साहित्यिक माहौल निर्मित करने के लिए न्यूज जंक्शन-18 का वेबपोर्टल मिल का पत्थर साबित हो रहा है। हमारा यह पहला प्रयोग पूर्णतः सफ़लता की ओर अग्रसर है। बल्कि पहले अंक से जुड़े रचनाककर व पाठकों के आपसी लगाव ने पारिवारिक माहौल भी निर्मित किया है। सप्ताह-दर-सप्ताह रचनाकारों को बेहतर प्रतिसाद मिलता रहा। इनकी कविताएं सैकड़ों पाठकों द्वारा पढ़ी जा रही है। हमारे लिए यह सुखद पहलू है कि रचनाककर हमें दोबारा भी अपनी रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज रहे है। इन्हें ‘मैं और मेरी कविता’ रविवारीय स्तम्भ में दोबारा ससम्मान स्थान दे रहे है। मैं जलज शर्मा और मेरी साहित्य टीम के प्रमुख संजय परसाई ‘सरल’ ह्र्दय से कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

इन नंबरों पर भेजे अपनी रचनाएं
-जलज शर्मा
मोबाइल नंबर 9827664019
-संजय परसाई ‘सरल’
मोबाइल नंबर 9827047920
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मगर अभी भी

 

माना पौरूष के हाथ
अभी भी
कैद है सपनो के उजियारे |
संवेदनाएं शून्य है ,
और छाये है,
गर्वित अधिकारों के अँधियारे |
माना, अभी भी हाथों में उनके
अपने अपने पैमाने,
छिन्द्रान्वेशी नजरें हर पल,
और भय के गलियारे |
माना अभी भी है
हाशिये पर ठहरी
और गहरी है भेद की दरारें |
नयनों का नीर से ,
अभी भी है अनुबंध
और भाव शून्य सपन सारे |
मगर फिर भी नहीं मैं हारी हूँ
सृष्टि रचयिता ,शक्ति स्वरूपा
तो बस मैं ही हूं,मैंने
स्पन्दन के गीत नहीं बिसारे |
राग छन्द की मेरी सृजना से
नव प्रभात के
ज्योति पुँज संग फैलते
मुस्कानों के उजियारे |

डॉ.गीता दुबे,
सेवा निवृत्त प्राध्यापक
रतलाम (मप्र)

——
बादल और नदी

इतनी चुप क्यों हो
जैसे रीति नदियाँ
तुम्हारी खिलखिलाहट
होती थी कभी
झरनों जैसी कलकल।
रूठना तो कोई तुमसे सीखे
जैसे नदियाँ रूठती बादलों से
मै बादल तुम बने
स्वप्न में नदी
सूरज की किरणें झांक रही
बादलों के पर्दे से
संग इंद्रधनुष का तोहफा लाए
सात रंगों में खिलकर
मृगतृष्णा दिखाता नदियों के
रीति नदियों में
पानी भरने को बेताब बादल
सौतन हवाओं से होता
परेशान।
नदी से प्रेम है तो
बरसेगा जरूर
नहीं बरसेगा तो
नदियाँ कहाँ से
कल कल के गीत गुनगुनाए ।
और बादल सौतन हवाओं के
चक्कर मे
फिजूल गर्जन के गीत क्यों गाए।
जो गरजते क्या
वो बरसते नहीं
यदि प्यार सच्चा हो तो
बरसते जरूर।

संजय वर्मा ‘दृष्टि’
मनावर (धार)
9893070756
——–
मातृशक्ति

मातृशक्ति बिन संसार अधूरा ,
रामजी हैं जैसे बिना सिया।
नारायण-लक्ष्मी साथ बिना,
नारी बिना रहे नर अधूरा।

नारी में होती बेटी-बहना,
अर्द्धांगिनी-प्रिया-सुमाता।
उसी में सारा रूप समाया,
भावना किन्तु जुदा-जुदा।

घर परिवार की धुरी है नारी,
संतति को करती संस्कारी।
एक नहीं दोनों कुल तारती,
सम्मान की हकदार वो होती।

श्रम की मूरत होती है नारी,
मानती नहीं वह हार कभी।
गिरकर वह फिर उठ जाती,
इसीलिए नारी शक्ति कहाती।

जन -जन अब यह मान ले,
मातृशक्ति को सम्मान दे।
नष्ट न हो कन्या कोख में,
पावन सन्देश समाज को दें।

डॉ. शशि निगम
इन्दौर (मप्र)
मोबा. 7879745048
——–

कुछ लिखे है गीत नूतन गुनगुनाने आ कभी

बन कभी संजोग भी कोई बहाने आ कभी
कुछ लिखे है गीत नूतन गुनगुनाने आ कभी

जुगनुओं का ये भरम है हार सूरज की हुई
तू किरण का अक्स बन कर सच बताने आ कभी

अनमना है मन जरा सा रात भी कुछ है सघन
कायमी है कुछ अँधेरे जगमगाने आ कभी

आँख आँसू गढ़ रही है पीर जीने चढ़ रही
बन हँसी अधरों उतर जा मुस्कुराने आ कभी

नग्नता तो ओर पुख्ता हो गयी अब भाव की
आरजू के ओढ़ बाने कसमसाने आ कभी

सो शिकायत पाल ली है देख कर के आइना
हम खुदी से अब खफा है तू मनाने आ कभी

इस नये बदलाव में दिल तो कही लगता नही
बन जमाने वो दिवाने कुछ पुराने आ कभी

फिर धरा पावस जिये है नभ नवल मोती झरे
में ठहर जाऊँ भी कैसे फिर भिगाने आ कभी

है हसीं पर दूर है भाग्य कली मगरूर है
बन हवाँ का तू असर टहनी नमाने आ कभी

मुकेश सोनी सार्थक, रतलाम

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