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‘मैं और मेरी कविता’ काव्य स्तंभ लोकप्रिय होने के बाद ‘न्यूज जंक्शन-18’ पोर्टल पर हर सप्ताह रचनाकारों की रचनाएं हमें मिल रही है। इनका क्रमवार प्रकाशन किया जा रहा है। काव्य स्तंभ के पाचवें चरण में हम कुछ और कवियों की रचनाएं पोर्टल पर प्रकाशित करने जा रहे है।
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नोट:- रचनाकर की रचना पूरी तरह से मौलिक होना चाहिए। सावधानी के ध्यानार्थ पोर्टल पर प्रकाशित कविताओं की मौलिकता संबंधी जवाबदेही पूरी तरह रचनाकार की रहेगी।
कविता इस नंबर पर भेजिए:-
जलज शर्मा
212, राजबाग़ रतलाम।
मोबाइल नंबर- 9827664010
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कविता के मुख्य चयनकर्ता:-
संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्तिनगर, गली न. 2,
रतलाम (मप्र)
मोबा. 98270 47920
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विजय राम पक्ष था
अभेद शत्रुपक्ष था
जिसे भेदना ही लक्ष था।
राम नाम की धमक से
कांपता विपक्ष था।
ये सत्य को भी ज्ञान था
असत्य परेशान था
की युद्ध का अंतिम सिरा तो
काल के समक्ष था।
ये युद्ध आर पार था
पाप का संहार था।
राम भाव हर किसी में
झांकता प्रतक्ष था।
उस और बल अपार था
इस और सत्य सार था।
काल कचहरी के आगे
फैसला निष्पक्ष था।
काल के प्रहार पर
निष्पक्ष जीत हार पर
कंहारता विपक्ष था
विजय राम पक्ष था ।
विजय राम पक्ष था
अभेद शत्रुपक्ष था…..
-दिनेश दर्पण
(दिनेश भवरिया)
7354338218
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जो न होती राधा
जो ना होती राधा
तो कृष्ण भी होते आधे
तुम हो कृष्ण परिपूर्णा
तुम ही हो कृष्णात्मा
मिश्रित सी मधुर मधुरिमा
हो तुम तो राधा रानी
हो तुम तो कृष्ण अराधिका
तुम हो प्रेम रस राधा
तुम बिन प्रेम रस अधूरा
तुम हो रसीका कृष्ण की
तुम बिन जीवन सार कोई न पाता
तुम हो प्रेम की अधिष्ठात्री
तुम रानी कृष्ण के दिल की
तुम हो सारे जगत की रानी
है जो कृष्ण परमानंद
तुम ही तो हो उसका आनंद
हो तुम प्रेम रस से परिपूर्णा
हो तुम कृष्ण की सर्वात्मा
पूजा तुम हो कृष्ण की राधा
राधा की पूजा है कृष्ण
इस तरह से है कृष्ण राधामय
और राधा है कृष्णमय
तुम हो यौवन परिपूर्णा
तुम बिन कृष्ण ना रास कर पाते
पाते जगत के स्वामी तुम से
तुम्हें जो पूजे वो कृष्ण को पाते
तुम बिन हे विश्वात्मा
ये जग प्रीत न जान पाता
-तृप्ति सिंह सकरारी
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एक और विदाई
लाख मना करने के बावजूद
पिता हो ही लिए थे साथ
बस स्टेण्ड छोड़ने मुझे।
नौकरी के लिए तो जा रहा था शहर
उनकी मनःस्थिति को समझ सकता था मैं।
याद है मुझे
जब विदा हुई थीबहन घर से
और
दुर्घटना में माँ की मृत्यु
मैं ही तो था उनके पास।
बिलकुल विचलीत नहीं थे वे
आज पहली बार लगा
बहन की विदा से
कितने टुटे होंगे पिता भीतर से।
और
माँ के जाने के वक्त तो
सोच भी नहीं सकता
पिता के भीतर क्या -क्या टूटा होगा।
बाहों में भर लिया था पिता ने
पीठ पर टपके आ्ँसू की नमी
बहुत कुछ कह रही थी मुझसे
आज
इस एक और विदाई के साथ।
-पद्माकर पागे
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जानवर
कितना आसान होता होगा किसी भी इंसान को
जानवर कह देना क्या
कभी सोचा है तुमने
ऐसा कहकर
जानवरों का कितना
अपमान होता होगा….
जानवर इंसान की
भाषा समझता है
यह उसके पालतू
होने के गुण है
पर इंसान कब
पशुवत हो जाता है
पता ही नहीं चलता…..
जानवर प्यार की भाषा बखूबी समझता है
मालिक को पहचानता है इंसानों में यह गुण
अब लुप्त हो गया है…
जानवर घास खाता है
इंसान अनाज
कौन किसको क्या देता है
सब जानते और समझते है
जानवर का पशुवत
व्यवहार इंसानों के
पशुवत व्यवहार से
अलग क्यों होता है
हम इंसान हैं जानवर नहीं
तो पशुवत व्यवहार का
जनक इंसान ही क्यों
यह आलोचना नहीं है
एक कड़वा यथार्थ है
जिसे हम जानते तो हैं
पर मानते नहीं…….
-मयूर व्यास ‘स्पर्श’
142,इन्द्रलोक नगर,
रतलाम (मप्र)
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अजन्मी पुकार
तेरी ममता की छाया में
मां मुझको चलने दे
तेरे आंचल में, मुझको पलने दे…..
मेरे सपनों को बुनने दे
धुन किलकारी की सुनने दे
बड़भागी तुम कहलाओगे
गोदी में मचलने दे…….
यक्ष प्रश्न तुमसे करती हूंl
कोख ही मैं क्यों मरती हूं ll
तेरे पद चिन्हों पर मां
मुझको भी बढ़ने दे……..
तेरा अक्ष हूं मुझे जान लेl
निर्मम हो ना मेरी जान लेll
नील गगन को मैं भी छूलू
पंख मेरे खुलने दे ………
तेरे बाग की मैं तो चिड़ियाl
सब मर्जो की हकिमी पुड़ियाll
परछाई सी साथ चलूंगी
डग संगसंग भरने दे…
तू भी जाने ये बात हमारीl
हम्ही से महके घर फुलवारीll कुरिवाज के तोड़ के बंधन
बस बाहे फैलाने दे……….
-दिनेश बारोट ॓दिनेश ॔
शीतला कॉलोनी सरवन
Mo.8827727790
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सब तेरा न रँग उतर सका
उमर नशा चढ़ाव पर चढ़ा न फिर उतर सका
उतर गया गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
थी टक टकी तनी रही
नजर निहा बनी रही
उठी हरेक टीस भी
कनक कनी कनी रही
पलो की तो उमर ढली मगर न पल गुजर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
अटक भटक के चाँदनी
उलझ गई जो रागनी
सहम गई निशा दिशा
ठहर गई यूँ जिंदगी
नवल था आईना मगर उजास ना सिकर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
इधर उधर जहान की
हरेक राह देख ली
हरेक आह देख ली
हर निगाह देख ली
तलाश खुद बनी तलब न रहबरा गुजर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
बना गजल न गा सका
न गीत गुनगुना सका
न शब्द में समा सका
न अर्थ ही निभा सका
जबान पर रहा सदा न बात से मुकर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
भँवर न छू सका कभी
महक न आ सकी कभी
बिखर सका न टूट कर
न इत्र वय मिली कभी
कली चटक न खिल सकी न पात सा बिखर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
नही बदल सका लिखा
हुआ वही रचा हुआ
नजूमी ने पढ़ा सफा
न हौसले का दिल रखा
अदावतें लकीर की नसीब ना सँवर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
कभी बना जो जल नयन
कनार पर ठिठक गया
चटक गई हँसी खुशी
मुआ ये मन बिखर गया
खटक गया जो आँख में पलक न पार कर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
उलच गई नयन नदी
सिसक पड़ा समय सदी
प्रमाण आह दे रही
बंधी थी गांठ में बदी
उसी बदी के मान का कभी न ऋण उतर सका
उतर गए गुबार सब तेरा न रँग उतर सका
मुकेश सोनी सार्थक