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मैं और मेरी कविता

लेखन संसार..

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आया है बसंत सखी रे

आया है बसंत सखी रे ।
छाया है नवउमंग सखी रे ।
नवपल्लव संग क्या इठलाया है ?
वाटिका पर आज भ्रमर का ,
मर्म भी पिघल आया है  ।
अपने सुरों से भ्रमर ने,कोयल से राग मिलाया है I
मैं क्या सृजन क्यूँ सखी रे ?
अब मैं क्या नवगीत लिखूँ सखी रे ?
नवबसंत आगमन पर उन्हें क्या सुनाऊँ ?
काटी है तमाम उम्र जिन्होनें झ्तंजार में।
इस वर्ष भी न लौटें उनके मनमीत रे।
अपने भाषा  श्रृगांर से,
अब उनके मर्म को कैसे  सहलाऊँ सखी रे?
तुम्हीं बोलो उनकी मुस्कान  कैसे लौटाऊँ  सखी रे?
मौसम का पतझड़ है  जैसे बीता ।
नवबसंत का संदेश ले,
आयेंगें  एक दिन  तेरे भी मनमीता ।
पर इस वक्त तो बसंत  संग ,
आज अपने नैनों को मस्त होने दें ।
उन्हें कह  दे अपने अधरों से,
आज कुछ तो छलकने दे I
पिघलेगा उनका  मर्म कभी तो,
अब खुद को सोच की शिला ,
न तब्दील होने देI
लाई है बसंती आज सभी के लिए संदेश।
मिलकर आज तो खुश हो ले हम।
आया है बसंत सखी रे।
छाया है नवउमंग सखी रे॥

-निवेदिता सिन्हा
भागलपुर (बिहार)।
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आयो बसंत

आयो बसंत ने खिली गयो मन,
छय गया सब जगे पीत सुमन।
पुलकित प्रकृति करी रय,
हिरदय से बसंत को अभिनंदन।।

कोयल कूकी री डाली हुण पे,
नाची रयो मयूरो मन ।
धीमी बयार चाली री,
मदमस्त हुय गयो पवन।।

तितली हुण इठलाती उड़ी रई,
भंवराहुण करी रया गुंजन।
स्वच्छ हुय गयो नील गगन,
पंछी कलरव से महक्यो उपवन।।

बौर झाड़ पे अइ गया,
पीला सरसो खिल्या चमन।
पतझड़ गयो ने आयो बसंत,
सबके मिल्यो नवजीवन।।

मन अनुराग से भरी गया,
करी रिया अधर निवेदन।
हिली मिली ने रो सगला,
हुय जाय यो सफल जनम।।

-हेमलता शर्मा ‘भोली बेन’ इंदौर (मप्र)।
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बसंत उत्सव

मौसम मनमोहन आया बसंत।
खुशियां की ऊंची उड़ी पतंग।।
कलियों ने अपना मुंह खोला ।
पतझड़ ने बदला अपना चोला।।
नयी कोपल में जगी उमंग।
नये जोश की उठी तरंग।।
वीणापाणि का प्राकट्य उत्सव ।
महाप्राण का जन्म उत्सव।।
प्रकृति साथ जैसे मनमीत।
कोयल सुनाये मीठे गीत।।
तितलियां करें फूलों का चुंबन।
आम्र मंजरी पर भमरो का गुंजन।।

खेतों में लदी सरसों की डाली।
फूदके गौरैया होके मतवाली।।
स्वर संगीत की करुणा मूर्ति।
सारी मनोकामनाओं की करें पूर्ति।।
नैसर्गिक धार्मिक साहित्यिक पर्व।
प्रसन्नचित होकर सभी करें गर्व।।

-दिनेश बारोठ ‘दिनेश’
शीतला कॉलोनी, सरवन
जिला रतलाम (मप्र)।
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वसंत कहूँ

बसंत कहूँ
या कहूँ
सरस्वती की वासंती
पंचम की पंचमी कहूँ
धरती का पीला परिधान कहूँ
या कहूँ
उत्सव कोमल कोंपलों का

बचपन से खुशबू बसी है
घर मे चहुंओर
मां के हाथ के
केसरिया भात की…
वो स्कूल में पूजन
के आंच की….
कपूर की सुगंध से
दीये की लौ की…

आज ऐसा कुछ होता है
पर बहुत कम होता है
परिधान बदला
रिवाज बदला
और बदला हमारा रंग ढंग
नहीं बदला तो बस
बसंत का बसंत
आज भी हरियाली भी वही
फूल भी वही
रंगत भी वही
मौसम का उत्साह भी वही
यदि कुछ बदला है
तो मानने और
मनाने का अंदाज़

आओ करें इस बार कुछ ऐसा
मौसम ही में नहीं
जीवन मे ही रहे
हर तरफ बसंत
बसंत और सिर्फ बसंत…..

-मयूर व्यास “स्पर्श”
रतलाम (मप्र)।
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लौट आएंगे

फूल माला पहना कर लौट आएंगे।

आज उनकी देह की अंतिम विदाई है।

सात जन्म साथ-साथ जीने के वादे,

शब्द सभी मौन हुए वाणी अब पराई है।

धर्मशाला दो दिन की समान सौ बरस,

पल में ही बिखर गई रुपया आना पाई है।

-अखिल स्नेही
रतलाम (मप्र)।
——

पहली नज़र

याद है मुझे, जब पहली बार निगहे मिली थी,
कैसे भूल जाऊ, तेरे गालों पर क्या लाली खिली थी।

होठों पर खामोशिया, दिलों में चिंगारिया जली थी,
पहली ही मुलाक़ात में, ये दिलग्गी जो लगी थी।

पलके झुकाई, फिर उठाई, क्या कयामत ढाई थी,
कलिया भी शरमा जाए, इस कदर मुस्कुराई थी।

वो घबराहट थी या शरारत का अंदाज़ कोई,
नज़रे चुरा के नज़रे मिलाना, ये अदा भी खूब भाई थी।

लफ्जों की दरकार किसे थी, हालत-ए-दिल बयां करने के लिए,
वो लहजे, वो नजाकत, सब तू अपने साथ लायी थी।

तेरे आंखो के मोती में, अपने अक्स का नूर देखा था,
तू किसी हूर सा, अजीज शबाब साथ लाई थी।

वो पहली मुलाक़ात याद करता रहता हूं अक्सर
जब चंद लम्हों के दरमियान, तू मेरी ज़िंदगी मे शामिल थी।

-महेश शर्मा,
मुख्य प्रबन्धक
पीएनबी शाखा धानमंडी, रतलाम।

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