फादर्स डे पर आप सभी सम्माननीय पाठकों का हार्दिक वंदन, अभिनंदन। ‘न्यूज जंक्शन-18’ की साहित्य टीम द्वारा विशेष दिवस पर प्रबुद्ध रचनाकरों की विशेष कृति का प्रकाशन प्रमुखता से किया जाता है। इस अंक में फादर्स डे के अलावा अन्य विषयों से जुड़ी कविताएं सम्माननीय रचनाकारों द्वारा हमें प्रेषित की गई है। सादर हम आपके लिए इन कविताओं को रविवारीय स्तम्भ के मंच पर प्रकाशित कर रहे है। आप अपनी प्रकाशनार्थ कविताओं को सोमवार से शनिवार के बीच कभी भी भेज सकते।
जलज शर्मा
संपादक, न्यूज़ जंक्शन-18
212, राजबाग़ कॉलोनी, रतलाम (मप्र)।
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रचनाओं के प्रमुख चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
शक्ति नगर, रतलाम (मप्र)।
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पिता की घड़ी
पूरे घर में तब एक ही
घड़ी हुआ करती थी,
पिता जिसे हाथ में बांधते और
उसी से शुरू होती थी घर-भर की ज़िन्दगी।
नौकरी पर चले जाते पिता
तो भी घर का वक़्त थमता नहीं
वह उसी तरह चलता रहता।
शाम को घर लौटते ही
सीलन भरी दीवार में हिलती कील पर
पिता टांग देते वह घड़ी।
हम भाई-बहनों के लिए बहुत ख़ास थी वह घड़ी
वही हमें पिता के होने का आभास कराती थी
उसी से शुरू होता था हमारा दिन
और वही तय करती थी हमारे सोने का समय।
रात को पढ़ाई करने उठती बहन
उस घड़ी में वक़्त देखकर पढ़ती और
अव्वल दर्जे़ में पास होती हर साल।
मां अलसुबह उठकर उसी घड़ी से करती अपने
अनवरत दिन की शुरूआत।
उस एक घड़ी से नियमित था पूरा घर,
आज पिता के गुज़रने के ग्यारह साल बाद
वह घड़ी बंद पड़ी है हमारी यादों की गठरी में,
और इधर घर की हर दीवार पर टंगी है
बड़ी-बडी घड़ियां
वक़्त फिर भी हाथ में नहीं है किसी के
ये घड़ियां सोने-जागने, पढ़ने-लिखने का
समय तय नहीं करतीं
ये घड़ियां दीवार की शोभा बढ़ाती हैं
इन घड़ियों से आखिर वह गंध भी नहीं आती
जो आया करती थी पिता की कलाई पर बंधी
घड़ी से,
श्रम से बहे पसीने की गंध।
-आशीष दशोत्तर
12/2,कोमल नगर,बरबड़ रोड़
रतलाम-457001
मोबा. 09827084966
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इंद्रधनुषी सारी रौनक बस
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस अपना वाला रंग नहीं है,
भारी भीड़ भरी महफ़िल में बस अपना वाला संग नहीं है।
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस….
है वो चर्चित उनका जीवन सबने माना,
लेकिन सबके साथ जी सकें जीवन जीने का वो ढंग नहीं है।
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस….
उनकी चाल बड़ी मस्तानी उनकी कहानी कहे दीवानी,
खाते पीते है वो बरबस उसमें लेकिन भंग नहीं है।
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस….
वो है लक्ष्मी वो है भगवन है उसका अहसास सदा,
सबने माना हम है मौन रुपये में कोई इंसानी अंग नहीं है।
मोटा दाना मोटा कपड़ा नहीं रहा महाभारतीं लफड़ा,
धरा युद्ध क्षेत्र सी बंजर
लगता है जीवन में कोई अधुरी जंग नहीं है।
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस….
अब भी अक्सर लगता है, सबको यही बस खलता है, शरीर से हो कहीं वो मन मेरे साथ चलता है।
हाल हकीकत क्या बतलाऊँ ये कोई स्वप्न नहीं है।
इंद्रधनुषी सारी रौनक बस….
डॉ. दीपेन्द्र शर्मा
सचिव- भोज शोध संस्थान
धार (मप्र)।
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अब मामा के वो गाँव कहाँ
उपवन में फैले बरगद सा होता था परिवार घना
आँगन सिमट गए फ्लैटों में ,गमलो में वो छांह कहाँ?
चूल्हे में रोटी के संग संग, पक जाते थे रिश्ते नाते
दे दे गर्मी अपनापे की, इन चूल्हों में वो आंच कहाँ?
दीपक की टिम टिम ज्योति में,तन मन दोनों उजियारे थे
चम चम करते इन बल्बों में ,रोशन सी वो रात कहाँ ?
आँगन सिमट गए ……
टापरिया थी कच्ची कच्ची , पर मन के बंधन पक्के थे
अब नेह भरी पगडंडी वाले, मामा के वो गाँव कहाँ ?
आँगन सिमट गए…….
चौपालों में मन रमते थे , दिल की बातें कह लेते थे
मिल जाए ठंडक दो पल की , वो घनी नीम की छांह कहाँ ?
आँगन सिमट गए……..
मिलकर त्योहार मनाते थे , गलियों में रंग उड़ाते थे
तेरे मेरे की अनबन में, वो गई ढ़ोल की थाप कहाँ ?
आँगन सिमट गए………
टेड़ा मेढ़ा आँगन हो चाहे , परवाह किसे कब रहती थी
नपी तुली सी बालकनी मे , अब मिलते ऐसे नाच कहाँ?
आँगन सिमट गए……….
मन भर आशीषें देते थे , सुख दुख साझा कर लेते थे
अब सबके अपने दुख –सुख है, सिर पर वो स्नेहिल हाथ कहाँ ?
आँगन सिमट गए……….
लगा लिए सबने मुखड़े , हो गए चरित्र सबके दोहरे
मिल जाये सच्चा प्यार जहाँ, अब लोगो में वो सांच कहाँ ?
आँगन सिमट गए……….
देहरी-दरवाजे थे खुल्ले , ना बातों पर कोई पहरे
बैठे बतियाये जी भर के, बंद दरवाजों में वो ठाव कहा
आँगन सिमट गए……….
-सुषमा दुबे
इंदौर (मप्र)।
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गौरैया
बहुत दिनों बाद
लौटी गौरैया
घर-आँगन में
उसकी चहचहाहट से
लौट आई खुशियां
लगा
बज रही हो
विंडचेम
उसके लौट आने से
फिर/चहचहा उठा
घोंसला
लहलहा उठी
आँगन की हरियाली
लौट आई
बच्चों के
चेहरे पर मुस्कान
कितना सुखद
उसका लौट आना।
-संजय परसाई ‘सरल