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मैं और मेरी कविता भाग-3

सम्माननीय पाठकों, साहित्यिक गतिविधि सांस्कृतिक एकरूपता का भी पर्याय है। आपसी मेलमिलाप का जरिया भी है। शब्द संरचना के माध्यम से देश, धर्म, संस्कृति, समाज, शिक्षा, प्रकृति, सौन्दर्य सहित जीवन के अनेक रस से सम्मुख किया जा सकता है। काव्य रचनाओं में समग्रता का सार है। इसका प्राकट्य ही पवित्रता है। न्यूज़ जंक्शन-18 द्वारा साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने ‘मैं और मेरी कविता’ के माध्यम से मंच प्रदान किया। इस मंच से अब शहर के अलावा प्रदेश सहित देश के रचनाकार जुड़े है। भाग-3 में प्रेषित कुछ उम्दा कविताओं की प्रस्तुति का प्रयास किया है।

अपनी रचना इस नंबर पर भेजिए

जलज शर्मा:-

मोबाइल नंबर-9827664010


कविता चयनकर्ता:-

संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्तिनगर ,गली न. 2,
रतलाम (मप्र)
मोबा.  98270 47920

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देशप्रेम

तुम्हें तो देश पर मरना था।
तुम्हें तो देश पर मरना था।
विपत्ति आई देश पर, तुम्हें तो संकट हरना था।
भारत मांँ के लाड़लो ,तुम्हें तो देश पर मरना था।

जननी की गोदी खेले तुम, बहना संग झूले।
अरे तुम बहना संग झूले।
तुम जैसे लालो के कारण ,भारत मांँ की बगिया फूले।
तुम्हारी हुंँकार उठी ,शत्रु को डरना था।
तुम्हें तो देश पर मरना था, तुम्हें तो देश पर मरना था।

पिता तुम्हारे गर्व करे ,लाल मेरा ऐसा आया है।
लाल मेरा ऐसा आया है।
माता झरती आंँख आंँसू ,लाल तो मेरा जाया है।
लाल तो मेरा जाया है।
देशप्रेम का तेरे अंदर बहता झरना था।
तुम्हें तो देश पर मरना था, तुम्हें तो देश पर मरना था।

जागो नौनिहालों जागो, देश को बचाना है.
भारत माता का सुन्दरतम, श्रृंँगार सजाना है.
शहीदों ने बलिदान दिया, भारत माँ की पीर हरना को था
उन्हें तो देश पर मरना था, उन्हें तो देश पर मरना था.

(नारायणी माया)
माया बदेका
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
—–

मां भारती

मां भारती पुकारती, मेरे लाल तू कहां,
प्रचंड ज्वाल भाल पर, लहू का तू तिलक रचा,
देशद्रोही आतताई, ये कचोटते मुझे,
आक्रांता से मुक्त कर, ढाल और खड़ग उठा,
मेरे लाल तू कहां, तू कहां, तू कहां,
मां भारती पुकारती, मेरे लाल तू कहां ?

शस्य-श्यामला हूं मैं, मैं हूं धरती उर्वरा,
नदियां-पर्वत और सागर, गोद में मेरी बसा,
पुकारता है मां का आंचल, फर्ज तू अपना निभा,
मेरे लाल तू कहां तू कहां तू कहां,
मां भारती पुकारती मेरे लाल तू कहां ?

जो दांत गिनते सिहों के, ऐसे वीर हैं यहां,
वंशज है तू राम का, बाण और धनुष उठा,
दुष्टों का तू नाश कर, धर्म की फहरा ध्वजा,
मेरे लाल तू कहां, तू कहां, तू कहां,
मां भारती पुकारती मेरे लाल तू कहां ?

तू वंशज है कृष्ण का, युद्ध का बीड़ा उठा,
गीता ज्ञान याद कर, चक्र तू सतत चला,
मेरा मान आज रख, उंगली पे पर्वत उठा,
मेरे लाल तू कहां, तू कहां, तू कहां,
मां भारती पुकारती, मेरे लाल तू कहां?

हेमलता शर्मा भोली बेन,

इंदौर मध्यप्रदेश।
——
बंजरपन

तुम यकीन करो
या ना करो
तुम्हें पत्थरों की
मानिंद लगने वाली
मेरे मन की धरती में
बंजरपन नहीं है….

मैं इसी धरती पर
सपनों की फसल उगाता हूं जज्बातों से सिंचाई करता हूं
भावनाओं की खाद देता हूं तब जाकर कविताओं की फसल उगती है
जिस पर अच्छे शब्दों के भुट्टे खिलते हैं……

तुम मेरी कविता की आलोचना कर सकते हो क्योंकि आलोचना करना तुम्हारा कर्म है
स्वीकारना मेरा धर्म….

तुम्हारे लिए मेरे मन की धरती बांझ हो सकती है
मगर मैं तुम्हे यकीन दिलाना चाहता हूं
इसकी हकीकत से
जहां से सिर्फ मन की आंखें देख सकती हैं
मेरी धरती के उपजाऊपन को…

होता होगा लोगों के
कुछ कहने और
बोलने में अंतर
मगर
मैं आडंबर और पाखंड की फसल नहीं उगा सकता
एक सच यह भी है लोगों की आंखें यही देखने की आदी भी है…
शायद
इसीलिए कुछ लोगो के लिए शब्दों का खेल होता होगा..
पर क्यों नहीं मान जाते कि
मेरे मन के खेतों की मिट्टी में
और तुम्हारे शब्दों/सपनों की मिट्टी में बड़ा फर्क है…..

पत्थर होना बंजर होना नहीं माना जा सकता
यदि पत्थर के मर्म को समझते हो तो
मेरे दोस्त
आलोचना नहीं प्रेम बोइये
और फिर फसल देखिए…..
और फिर फसल देखिए….

मयूर व्यास “स्पर्श”
142 इंद्रलोक नगर रतलाम
8718072729
——–
जीवनयात्रा

कोई कब तक साथ दे
कोई कब तक हाथ दे

अकेले ही चलना है
जीवन के सफ़र में

कोई कब तक सहारा बने
कोई कब तक आसरा दे

कोई कब तक कंकर हटाए राहों के

भाग्य के फूल हों, चाहे हों शूल
हर हाल में करना है स्वीकार

फूलों से करते हैं जैसे प्रेम
छोड़ना नहीं है इन शूलों को भी

अपनाना है इन्हें हर हाल
चलना अकेले है जीवन के सफ़र में
हर साथ क्षणिक है, हर आस भ्रम है

उद्देश्य जीवन के सभी के अलग हैं

मंजिल सबकी एक और एक ही ठिकाना है

एक ही डगर पर सबको चलते जाना है

चलते रहना जीवन है, ठहर जाना मृत्यु

पाना है तो स्वयं को सबसे पहले पाना है

भीतर की यात्रा सुखद है, यही अनमोल खजाना है

बाहर भटक कर क्यों फिर यह जीवन गँवाना है…..!

~डॉ कविता सूर्यवंशी
रतलाम (म.प्र.)।

——–
तुम कविता हो

लफ्ज़ में लिपटी कविता
बहे मध्यम बयार सी
ऊँचाईयों को छूकर गुज़रती
कभी गुलाबो सी महकती
पन्नों पर हाले दिल बया करती
स्याही को माध्यम बनाकर
बातों से लुभाया करती
हे कविता तुझसे मुहब्बत है
दिलों दिमाग पर तुम ही तुम
मेरे पहलू में बैठ कर मुस्कुराती
मेरे जीने का सबब बन जाती हो
हर दिन नये जौशोखरोश से
एक नये दिन का आगाज़
लिए हां तुम कविता हो

अर्विना गहलोत
D 49 उत्कर्ष नगर
एनटीपीसी मौदा जिला नागपुर (महाराष्ट्र)

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