‘मैं औऱ मेरी कविता’
देश-विदेश में नमकीन नगर के नाम से पहचान बना चुके रतलाम शहर में अकूत साहित्यिक माहौल भी है। यहां लोगों के दिलों दिमाग में साहित्य रचा-बसा है। साहित्य से जुड़ी शहर की महान हस्तियों व प्रतिभाओं ने कविताओं एवं रचनाओं के माध्यम से देशभर में अपनी पहचान बनाई है। यह क्रम निरंतर चलता रहेगा। न्यूज जंक्शन-18 न्यूज़ पोर्टल पर रविवारीय कालम ‘मैं औऱ मेरी कविता’ की शुरुआत की जा रही। प्रयास रहेंगा कि प्रति रविवार कविताओं का प्रकाशन कर पोर्टल पर दर्शाया जाए। इससे शहर में साहित्यिक माहौल की निरंतरता बनी रहे। आप भी अपनी रचनाएं भेज सकते। साहित्य टीम द्वारा चयन के पश्चात प्रकाशित की जाएगी।
इस नंबर पर प्रेषित करें
जलज शर्मा
मोबाइल नंबर 9827664010
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*गीत -*
*धूप है पल मेंतो पल में बारिशें*
मुस्कुराहट में छुपी हैं रंज़िशें,
प्यार के पहलू में कितनी साज़िशें?
कब यहां क्या हो,किसे है क्या ख़बर,
हर कोई इक- दूसरे से बेख़बर।
हो गया सबकुछ क्षणिक, क्या देर हो,
कब उजाले में यहां अन्धेर हो,
धूप है पल में तो पल में बारिशें।
मौन के भीतर कई संग्राम हैं,
तेज़ गतियों में बहुत विश्राम हैं।
हाथ मिलते हैं, दिलों में दूरियां,
क्या कहें,कितनी यहां मजबूरियां।
हो नहीं पाती हैं ज़ाहिर ख्वाहिशें।
सामने जो बात है भीतर नहीं ,
दोमुंहे मिलते बताओ कब नहीं?
शोर ही करने लगे गर बेज़ुबां,
क्या करें विश्वास सच पर फिर यहां।
बेड़ियां जब खोलती हों बन्दिशें।
*- आशीष दशोत्तर*
12/2, कोमल नगर
रतलाम
मो. 9827084966
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*दीमक*
दीमक
चट कर रही है
दरवाजे, खिड़की और पलंग
वह नष्ट कर देना चाहती है
हथोड़ा, कुल्हाड़ी व हँसिये के हत्थों को
तमाम दस्तावेजों को भी
कर जाना चाहती है चट
ताकि/ न उठ सके
जरूरतमंदों की आवाजें
दीमक और सफेदपोशों में
नहीं कोई फर्क
उनकी फितरत में है
अंदर से खोखला करना
अब तो/ पेट तक आ पहुंची दीमक।
*संजय परसाई ‘सरल’*
*सजा*
मैं सोच नहीं सकती
कि तुम हो सकती हो
इतनी निर्दयी
कर सकती हो
अपने ही खून का खून
क्यों नहीं समझती
कि मैं भी
तुम्हारा ही हूं अंश
तुम्हारे ही रगों में, दौड़ती है
मेरी आत्मा
तुम्हारी सांसों में ही बसी है
मेरी भी सांसे
सोचो माँ
अपनी भुलों की सजा
मुझे देकर
तुम रह पाओगी खुश?
*संजय परसाई ‘सरल’*
118, शक्तिनगर ,गली न. 2,
रतलाम (मप्र)
मोबा. 98270 47920
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तट और बहाव…
मैं नहीं देखता केवल,
नदी के बहाव को,
देखता हूं उसके कटे तट पर,
उग आए फूलों को भी,
मेरी आंखों में उभरी,
तट की विषमता,
उसी वक्त समाप्त हो जाती हैं,
जब एक फूल टूटकर,
मिल जाता हैं पानी में,
देखा जाए तो हमारे तट भी,
हमने ही किए अस्त व्यस्त,
वरना फूल तो वहां भी हैं,
हृदय की सरिता में,
बह जाने के लिए,
दरअसल तट कोई भी हो,
हमने कभी,
तट को तट समझा ही नहीं,
बस समझा है बहाव जो,
स्वयं तट पर ही हैं आश्रित ….।
रचना ©️ यशपाल तंँवर
फिल्म गीतकार
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ग़ज़ल न गुनगुनाएंगे
ग़ज़ल न गुनगुनाएंगे ,ना गीत कोई गाएंगे ।
दर्द इतने बढ़ गए कि, कुछ नया ही गाएंगे ।
कोई त्रिशूल बांटता ,कोई घुमाता लाठियां।
तलवार कोई भांजता, कोई चलाता गोलियां ।
प्रजातंत्र में देखो ,ये नंगा नाच हो रहा ।
आंखों पे पट्टी बांधकर, देखो धमाल हो रहा।
गजल न गुनगुनाएंगे ,
ना गीत कोई गाएंगे ।
दर्द इतने बढ़ गए ,कि कुछ नया ही गाएंगे।
गीतकार अलक्षेन्द्र व्यास
रतलाम मो. नो. 9302426683