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मैं और मेरी कविता

पितृ पक्ष में दौरान सदियों से घर-घर मनाए जाने वाले संजा केे पारंपरिक पर्व से मालवा सहित प्रदेशभर की अलग पहचान है। आज भी संजा के गीतों की गूंज इन्हीं दिनों गली-कुचों में सुनाई देती है। कन्याएं इस पर्व को अपने ढंग से मनाते नित्य आरती उतारकर अपने सौभाग्य की कामना करती है। न्यूज़ जंक्शन-18 के इस अंक में हम संजा पर्व से तो कुछ मिली-जुली कविताओं का मिश्रण लेकर आए है।

जलज शर्मा
संपादक, न्यूज जंक्शन-18
212, राजबाग़ कॉलोनी, रतलाम (मप्र)।
मोबाइल नंबर 9827664010

रचनाओं के प्रमुख चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्ति नगर, रतलाम (मप्र)।
मोबाइल नंबर 9827047920
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संजाबई

म्हारा आंगणे पधारो संजाबई,
कराँगा मिजवानी।

हरा-हरा गोबर की चौकी बणाई,
सतरंगी फुलड़ा से ऊके सजाई।
अई ने बिराजो संजाबई,
करांगा मिजवानी।

चाँद-सूरज अगवानी में ऊबा,
सखी-सहेल्याँ आरती सजई रिया।
जल्दी पधारो संजाबई,
कराँगा मिजवानी।

रेसम की तो चुनड़ी मँगाई ,
गोटा किनारी से ऊके सजाई।
अई ने ओढ़ो संजाबई,
कराँगा मिजवानी।

चंपा-चमेली का गजरा बणाया,
रंग बिरंगी पन्नी से ऊके सजाया।
अई ने पेरो संजाबई,
कराँगा मिजवानी।

चम चम चमकणा चोपड़ बिछाया,
रंग-रंगीला पासा बी राळ्या।
अई ने रमो संजाबई,
कराँगा मिजवानी।

घेवर-जलेबी का भोग बणाया,
सखी-सहेल्याँ गीत बी गई रिया।
भोग लगाव संजाबई ,
कराँगा मिजवानी।

म्हारा आंगणे पधारो संजाबई
कराँगा मिजवानी।

-डॉ. शशि निगम
इन्दौर (मप्र)
मोबा. 7879745048
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बेटियाँ संजा गीत गाती है

डगर-डगर चली बेटियाँ
गुनगुनाते हुए संजा गीत
जो उसने सीखे थे माँ से
रच-बस चुके थे सांसो में
हर त्योहारों के मीठे गीत

सखिया बन जाती कोरस
स्वर मुखरित हो उठते तो
कोयल कूक हो जाती फीकी
ठहर जाते लोगों के भी पग
कह उठते कितना अच्छा गाती

बेटियाँ अब कम हो जाने से
हो गये है त्यौहार भी फीके
गीत होने लगे आँगन से गुम
बेटे त्योहारों पर गीत बजाते
सुनने को अब पग कहा रुक पाते

संजा गीतों और बेटियों को
जब सब मिलकर बचाएंगे
सूने आँगन फिर सज जायेंगे
सुर करेंगे हवाओं से दोस्ती
बोल कानों में मिश्री घोल जायेंगे

-संजय वर्मा ‘दृष्टि
125, बलिदानी भगत सिंह मार्ग
मनावर, जिला धार (मप्र)।
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संजा

संजा संस्कृति का अभिन्न अंग है
अभी कम ही नजर आती है
जब की गोबर से बनती है
इसीलिए ये टिक पाती है ।
नहीं तो कहां टिक पाती
नोंच खसौट ली जाती
पता ही नहीं चल पाती
फिर भी गुम हो गई है ।
यहां से भाग कर वह
विदेशों में जा बसी है
मान सम्मान पा रही है
अपना देश छोड़ चुकी है ।
विदेशी धरती की माया
यहां पर जो आ बसी है
फिर संजा लाओ खींच यहां
पीहर ससुराल केवल यहां है ।
संजा भी तो याद करेगी
अपने देश लौट आएगी ।

-अर्चना पंडित
इन्दौर।
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संस्कार सिखलाता
संजा माता का पर्व

भाद्रमास की पूर्णिमा
श्राद्ध की  कहलाती हैं,
इसी दिन से संजा माता
सोलह दिन पीहर आती है

सखी सहेलियां सब मिलकर
गोबर फूल पत्तियों से
दीवार पर संजा का रूप सजाती है
नये-नये, संजा के  हर दिन
सोलह रूप बनातीं है
सायंकाल मिलकर  सब सखियाँ
आरती कर, संजा को रोज जिमाती हैं

संजा ए तू थारा घरे जा थारिबाई
मारेगा कूटे गा डेली में डचकोके गा
गीत चुलबुले गाती हैं
संजा की सास पर, तंज कसती हैं
हंसती खिल-खिलाती हैं,
“कहते हैं” एक दिन होता एक वर्ष का
बीत जाते हैं जब सोलह दिन तो
संजा सोलह साल की हो जाती है
अब घड़ी बिदाई की आती है
रोती गातीं सहेलियों को छोड़
संजा अपने ससुराल चलीजाती है

धन्य है भारतीय परंपरा हमारी
इस तरह पाठ हमें पढ़ाती हैं,
हँसी खेल में बच्चियों को
संस्कार ससुराल के सिखलाती है।

-कैलाश वशिष्ठ
रतलाम (मप्र)।
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लौट जाऊंँ बचपन में….

जीवन की आपाधापी में,
तुम कब आकर,
विदा हो जाती हो संजा,
कुछ पता नहीं चलता,
इससे तो बचपन भला था,
तुम्हारे आगमन से,
जाने तक का उत्साह,
सालभर दौड़ता था रगों में,
धीरे-धीरे तुम्हें भुलाकर,
खुद दौड़ने लगे हम,
ऐसी अंधी दौड़ में,
जहांँ न उत्साह है न उमंग,
ना वो इंद्रधनुषी रंग,
तरक्की और पैसा,
नाकाफ़ी लगता है,
इस बार जी करता है,
तुम्हारे साथ फिर से,
लौट जाऊंँ बचपन में,
फूल पत्तियों के संग,
गीतों के उपवन में…।

यशपाल तंँवर
( फिल्म गीतकार )
अलकापुरी, रतलाम।
——–
संजा तू लौट के आजा

संबंध निर्वहन तू सिखलाती।
सु संस्कारों की बात बताती ।।
समरसता का ताना-बाना।
सखियों के घर आना जाना।।
उच्च नीच का भाव मिटाने।
मन मुटाव दिल से हटाने।।

मिलजुल कर संजा गीत गाए।
पीहर की सारी खूबियां बताएं।।
गौ गोबर से बनाते संजा।
फूलों से करते उसकी सज्जा।।
सांझ ढले संजा गीत गूंजें।
प्रसाद आरती संग संजा पूजे।।

सुनी हो गई गांव की गालियां।
मुर्झा रही अध खुली सी कलियां।।
के वह संगी साथी
जिनके संग फूल चुन लाती।।
बचपन की यादें खूब सताए।
कोशिश की पर भूल ना पाए।।
संजा तु फिर से लौट के आजा।
खोई यादों को कर दे ताजा।।

-दिनेश बारोठ ‘दिनेश’
शीतला कॉलोनी
सरवन, जिला रतलाम (मप्र)।

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संजा

दिवारो पर
गोबर से रचती
वेद ऋचाएं
घोषा और अपाला

श्राद्ध पक्ष मास में
सांझ के आकाश में
फूलों की खुशबू को
पिरोती मन के धागों में

कुंकुम,अक्षत संग
आरती की थाल में भर देती
प्रफुल्लित भाव को

संजा गीत गाती
विलुप्त कगार पर खड़ी
संस्कृति को
थामती
बेटियां।

-शिव चौहान शिव
183, अष्टविनायक रेसीडेंसी रतलाम (मप्र)

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