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मैं और मेरी कविता-भाग 13

न्यूज़ जंक्शन-18 के रविवारीय साप्ताहिक स्तम्भ के साहित्य सरोकार में हर सप्ताह रचनाककर जुड़ रहे है। हर सप्ताह उनकी श्रेष्ठ रचनाओं से आप सभी पाठकों को रूबरू करवाया जा रहा है। अब तक इस स्तम्भ में विभिन्न विषयों से जुड़ीं हिंदी रचनाओं का प्रकाशन किया गया। इस अंक में हम मालवी रचना का भी समावेश करने जा रहे है। कोई रचनाककर यदि मालवी बोली से वास्ता रखते है तो वे इससे जुड़ी रचना भी भेज सकते है। आगामी हर अंक के लिए आप शनिवार तक अपनी रचना अवश्य भेज देंवे। उनका प्रमुखता से प्रकाशन किया जाएगा।

जलज शर्मा, संपादक
न्यूज जंक्शन-18
212, राजबाग़ रतलाम (मप्र)
-इस नंबर पर भेजिए रचनाएं
मोबाइल नंबर-9827664010

रचनाओं के मुख्य चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
शक्ति नगर, रतलाम (मप्र)
-इस नंबर पर भेजिए रचनाएं
मोबाइल नंबर-9827047920

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गुलमोहर

गुलमोहर
हमारे कस्बाई शहर की
शान हुआ करते थे कभी

रेलवे स्टेशन से लेकर
शहर के दरवाज़े – कॉलेज तक
और उधर राजमहल के द्वार तक
अपने सर पर अंगारे उठाए
सड़क के दोनों किनारे खड़े गुलमोहर
जेठ की चिलचिलाती धूप में भी
राहगीरों को छांव और सुकून देते थे

गुलमोहर के साये में
संतोष का चाय – नाश्ता
दोस्तों का हंसना – चहकना
भुलाए नहीं भूलता अब भी

तांगा खींचते
सेहतमंद घोड़े भी
क्या इठलाते चलते थे
टक टक टक टक टक टक
उनके पांवों ठुकी नाल और
गले में बंधी घंटी की आवाज़ से
शास्त्रीय संगीत के मधुर तालमेल का
सुखद आभास हुआ करता था

फिर बनीं सड़कें – कटे गुलमोहर
फिर सजे बाज़ार – कटे गुलमोहर
फिर बने ख़ूबसूरत मकान – कटे गुलमोहर

अब शहर फैल गया है
चारों तरफ चहल-पहल है
मगर छांव नहीं है, सुकून नहीं है
इठलाते घोड़े नहीं हैं, गुलमोहर भी नहीं हैं

सोचता हूं
गुलमोहर के साये साये
अगर हमारा शहर होता
तो आज कितना शानदार होता ।

-यूसुफ़ जावेदी, रतलाम (मप्र)
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‘प्रस्तर युग’

हम जानते हैं!
जानते हैं-
कैसे वो अधेड़ पिता
चंद सिक्कों के बदले गिरवी रखता है अपनी नींद..
जानते हैं-
कैसे रोज़ राधा की बेटी ,
ज़बान को दांतों तले दबा कर,
सह जाती है हर अनचाही छुहन को..
जानते हैं-
कैसे वो खुद अर्धनग्न हो,
छुपा लिया करता है अपने सीनियर्स का नंगापन..
जानते हैं-
कैसे न चाहते हुए भी उसने ख़्वाहिशों के साथ तराज़ू के दूसरे पलड़े पर रख दिया था अपनी ज़रूरतों को,
जानते हैं-
कैसे संभाले उसने अपने जज़्बात हर बार
ठोकरे खा-खा कर,
और लड़खड़ाने पर भी रास्ते के पत्थरों को दोष नहीं दिया
न ही हँस पड़े पत्थर दिलों को

जानते हम सब है ! जताना नहीं चाहते
नींद का व्यापार, लाडो की बेबसी, अधूरे स्वप्न और ठोकरें समाज की..

चाहते हैं- हृदय के गर्भ में दफ़नाना
और कुचल देना हर उस भाव को जो पराई पीर पहचान सकता था ;

निष्ठुरता की परत चढ़ा उस पर
हो जाना पत्थर!
ताकि कोई जो ग़म की कहानी गुज़रे
ना भेद पाए उस कठोर कवच को,
ना फूटे कोई फ़व्वारा किसी हृदय से
ना पोंछी जाए कोई आँखें किसी के मोती;
मंडराया करे मक्खियॉं किसी घाव पर
कोई रस्सी बन जाए फंदा!

हम अख़बार में आत्महत्या का वार्षिक आँकड़ा पढ़ेंगे नाश्ता करेंगे और काम पर चले जायेंगे..

वाकई ज़मीन अब ज़्यादा पथरीली है..

-अनुज पाठक


वरसी री है लाई,
घबरई रो है जीव,
ठंडा – ठंडा मटका रो,
धापी ने पाणी पीव…।

आम्बा एटे बईने,
खूब हागा खा,
हवेरा हवेरी ने,
दन आतमे,
खेत-कुडे जा,
करावण री ठंडी हवा में,
सुख पावेगा जीव…।

वरसी री है लाई,
घबरई रो है जीव,
ठंडा – ठंडा मटका रो,
धापी ने पाणी पीव…।

©️ – यशपाल तंँवर
( फिल्म गीतकार )
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माॅं वो गुलाब है..

ख़ुद को जलाकर घर को रोशनी दे
माॅं वो चिराग हैं..!
जिसकी मौजूदगी परिवार मह़का दे
माॅं वो गुलाब है..!

हर रिश्ते में मतलब घुला मिलता
जब आज के दौर में..!
यही तो एक शुद्ध रिश्ता है
इसका अलग ही रूआब है..!

जिसके पास माॅं होती हैं
वो सबसे बड़ा अमीर होता..!
झोपड़ी में रहकर भी तो वो
होता सबसे बड़ा नवाब है..!

उसकी हर बात में सीख होती
माॅं भले ही अनपढ़ हों..!
हर पन्ने पे एक जीवन मंत्र लिखा होता
माॅं वो किताब है..!

-कमल सिंह सोलंकी
सी/7 पुनम विहार इंद्रलोक नगर रतलाम
मोबाइलनंबर 9826588761

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