मैं और मेरी कविता
भाई-बहन के स्नेह को दर्शाता रक्षाबंधन का पर्व पारिवारिक बंधन व अटूट प्रेम का पर्याय है। यह हममें आपसी त्याग, समर्पण, अपनत्व, एकत्व व सहनशीलता का भाव निर्मित करता है। बल्कि यह संबंधों की पवित्रता, कर्तव्यता व मेलमिलाप की सीख भी हमें देता है। हालांकि इस पर्व को मनाने का क्रम रक्षाबंधन के मुख्य दिन से लेकर जन्माष्टमी तक चलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब पांडव जुए में कौरवों के हाथों द्रौपदी को हार गए। वे भरी सभा में द्रोपदी का चीर हरण करने लगे। तब द्रौपदी ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान कृष्ण को याद किया। अपनी बहन के सम्मान की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने भाई होने का वचन निभाया। इसलिए समाज में बहना जन्माष्टमी पर भी भाई को राखी बांधकर रक्षा का वचन लेती है। रक्षाबंधन व अन्य विषयों पर आधारित कुछ रचनाकारों की कविताओं का प्रकाशन हमारे न्यूज पोर्टल पर कर रहे है।
जलज शर्मा
संपादक, न्यूज़ जंक्शन-18
212, राजबाग़ कॉलोनी रतलाम।
मोबाइल नंबर-9827664010
कविताओं के प्रमुख चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्ति नगर, रतलाम।
मोबाइल नंबर-9827664010
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रक्षाबंधन
बहना को कुछ ना चाहिए,
उसे चाहिए केवल प्यार।
भैया स्वस्थ प्रसन्न रहे,
हो उसका सपना साकार।
बहना अपने घर में खुश है,
तीज-त्योहार सताए याद।
प्रेम भरा ‘रक्षाबंधन’ है,
भाई का करती इंतजार।
रक्षाबंधन भाई-बहन का है,
प्यारा और पावन त्योहार।
बहन भाई को राखी बाँधे,
माँगे सुरक्षा का उपहार।
बहना देती आशीष सदा है,
भैया को मिले खुशी अपार।
सौभाग्यवती हो भाभी मेरी,
रहे सुखी उसका संसार।
मातृभूमि की सुरक्षा में,
डटे हुए हो भैया तुम।
राखी भेज रही हूँ मैं,
प्रभु का दीर्घायु उपहार।
कोई कलाई न सूनी रहे,
बहना पाए मान-सम्मान।
सबको सुख-समृद्धि मिले,
ऐसा हो राखी त्योहार।
-डाॅ. शशि निगम
इन्दौर (मप्र)
मो-7879745048
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रेशम की डोर
कभी चिट्ठियां घर को आती
अक्षरों को आंसू से फैला जाती
फैले अक्षरों की पहचान
ससुराल के निर्वहन को बतलाती।
पिता की अनुपस्थिति में
भाई लाने का फर्ज निभाता
तो कभी ना आने पर
वही राखी बंधवाता।
बिदा लेते समय
बहना की आँखे
आंसू से भर जाती
भाई की आँखें
बया नही करती बिदाई।
सिसकियों के स्वर को
वो हार्न में दबा जाता
राखी का त्यौहार पर
भाई बहन के घर जाता।
रेशम की डोर में होती ताकत
संवेदनाओं को बांध कर
बहन के सुख के साथ
रक्षा के सपने संजो जाता।
संजय वर्मा ‘दृष्टि’
मनावर (धार)।
9893070756
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मौन-चिंतन
भ्रम का व्यापार है
द्वेष का बाज़ार है
शब्द नाराजगी दे रहे तो
मौन चिंतन कीजिए ।
अफसोस बारंबार है
पर अभिमान भी अपार है
तुलना फिर भी चल रही तो
मौन चिंतन कीजिए ।
रोशन वहां गुलजार है
और परवाने भी हज़ार है
फिर भी करुण पुकार है तो
मौन चिंतन कीजिए ।
लगा रहे सब जयकार है
पर गठबंधन ही बीमार है
फिर भी एक इंतजार है तो
मौन चिंतन कीजिए ।
कड़वाहट बेशुमार है
और सत्य ही बीमार है
जहर घुलने लगे हर तरफ तो
मौन चिंतन कीजिए ।
कौन गरीब गुनहगार है
रोटी सेकती तलवार है
बेबसी भी अब लाचार है तो
मौन चिंतन कीजिए ।
छिड़ी राग मल्हार है
ताल मृदंग झंकार है
नृत्य सबका देखिये पर
मौन चिंतन कीजिए ।
-नेहा शर्मा
बदनावर।
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अस्तित्व के अंश
छोड़ जाता है अपने अस्तित्व के कुछ अंश,,,
जाने वाला,
कहां जा पाता है,
पूरी तरह से अपनों से दूर।
छोड़ जाता है/छूट जाता है,
बहुत कुछ, अपनों के पास।
टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही,
कराता रहता है,
अपनी उपस्थिति का अहसास,
हर लम्हें में।
आ ही जाता है वह,
वक्त-बेवक्त,
ग़म और खुशी दोनों में,
अपनों के पास।
छा जाता है,
पूरे व्यक्तित्व पर।
और छोड़ जाता है,
अपने अस्तित्व के, कुछ अंश।
पूरी जिन्दगी,
रुलाने के लिए,
आपके पास।
-नरेन्द्रसिंह पॅंवार
रतलाम मप्र।
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अंतर्द्वंद्व …!
खुद से खुद की महाभारत,
अपनी बात कहें या खामोश रहें,
कशमकश का सतत् अंतर्द्वंद्व,
उलझता यह मन, कहा अनकहा,
कह दिया तो, सब पहले सा होगा,
इसी कशमकश में गुजरते पल,
सवेरा, दोपहर, शाम और…!
ये करवटें बदलती पूरी रात,
ठाना कि मन की बातें कह दूं ,
भीतर के झंझावातों को शब्द दूं,
महाभारत लडकर, सारे तीर छोड़ दूं ,
अब तो बस बहुत हुआ,बोल ही दूं,
पर ठिठकता मन, वही अंतर्द्वंद्व,
कहने लगे कुछ हम, बस सिर्फ मौन,
मौन की अपनी भाषा, रिश्तों की आशा,
बोलना ही क्यों, क्या पाया, क्या खोया,
कैसे मन की बात बताएं कैसे, परंतु,
सिलसिला अनंत, नहीं कोई अंत,
अंतर्द्वंद्व, बस अंतर्द्वद्व ही तो है।
– सतीश जोशी
समूह संपादक 6pm
इन्दौर (मप्र)।
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पवित्र बंधन
रिश्तों का है ये, पवित्र बंधन।
भाई बहन का, अटूट ये संबंध।।
संकल्पों का, रक्षाबंधन।
पावनता का, पर्याय ये बंधन।।
बहनों का यह, रक्षा कवच।
आदिकाल से, यही है सच।।
कच्चे धागों का, बढाया मान।
चीर बढ़ाने, खुद आये भगवान।।
गुरु-शिष्य भी, बंधे इस डोर।
इसकी ना सीमा, नहीं कोई छोर।।
मन में सदा रहे, यही पावन भावना।।
रक्षाबंधन की,आपको शुभकामना।।
-दिनेश बारोठ ॓दिनेश