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मैं और मेरी कविता

न्यूज जंक्शन-18 के साहित्य मंच के इस रविवारीय अंक में हम पाठकों के लिए मिली जुली कविताओं का संग्रह लेकर आपके सम्मुख हुए हैं। भगवान कृष्ण से तात्कालिक हालातों की व्यथा को दर्शाती कविता भेजी गई हैं। वही अन्य रचना अपने गांव की पुरानी सुनहरी यादें तथा अतीत के चित्रण को बेहतरी से वर्णित किया गया है। इसके अलावा साहित्यिक मंच पर उषाकाल, हिंदी तथा शब्द विषयों से जुड़ी कविताएं भी प्रसारित की जा रही है।

जलज शर्मा
संपादक, न्यूज जंक्शन-18
212, राजबाग़ रतलाम (मप्र)।
मोबाइल नंबर 9827664010

रचनाओं के मुख्य चयनकर्ता
संजय परसाई ‘सरल’
118, शक्ति नगर गली नंबर 2
रतलाम (मप्र)।
मोबाइल नंबर 9827047920
——
उषा

पौ फटी
झील में नहा कर
काले कुंतल केश बाँधे
जल बिंदु-मुक्ता साजे
ओढ़े लाल सुनहरी चुनरिया
निकसी सुंदरी उषा

उदित बाल रवि
नवकोपलों का झबला पहने
हरखे-किलकारी भरे
खिलखिलाए,मुदिताए
हरित पातों की ले ओट
विहँस-विहँस हर्षाए

झील जागी
नील सुनहली
झील का सुप्त संसार
हो गया स्पंदित
खुल गईं बंद सीपियाँ
नीली-सुनहली मछलियाँ

उछलतीं,ऊँचा और ऊँचा
सपनों को करने पूरा
रचने को इंद्रधनुष
रंगती व्योम को
भरने को मुट्ठी में सूरज
बढ़ती असीम को

-यशोधरा भटनागर
देवास (मप्र)
——-
हिन्दी

हिन्द की बेटी हैं हिन्दी,
है भारत माँ के माथे की बिन्दी ।
है ये राष्ट्रभाषा हमारी
भिन्न- भिन्न धर्मो को एक सूत्र में पिरोती,
भावनाओं के संचार का माध्यम ,
है ये जन जन को प्यारी ।
पर आज अंग्रेजी है सौतन बन,
घर इसके घुस आई ।
अंग्रेजी बोलने का चल पड़ा फैशन ।
आज हिन्दी के घर,
अधिकार जमा बैठी इसकी सौतन ।
साल में एक बार “हिन्दी दिवस” हम मना लेते।
कल से फिर अंग्रेजी में हाय हैलो की रट लगा देते ।
क्यों नहीं बदलती हमारी मानसिकता ?
माना अंग्रेजी है अन्तरराष्ट्रीय भाषा
पर हिन्द में इसका नम्बर ,
हिन्दी के बाद ही आता ।
हिन्दी बोल करें गर्व ,
इसे कभी ना समझे अंग्रेजी से तुच्छ हम ।
ये हमारी है अपनी संस्कृति ,
सदियों से साथ सफर है करती।
है ये तो बिलकुल अपनी ‘
अगर करते हैं अपने देश को प्यार हम,
तो हिन्दीं को दे सभी भाषाओं के शिखर में
सर्वश्रेष्ठ स्थान हम ।

-निवेदिता सिन्हा
भागलपुर (बिहार)।
——

तुम्हें नहीं आती याद

बहुत दिनों बाद
आज गाँव गया
मंदिर के बरामदे में
उछल-कूद करते बच्चे
सुस्ताते बुज़ुर्ग
महिलाओं का बतियाना
सब मानों जीवंत हो उठा

मंदिर से आ रही
चंदन और फूलों की महक
वातावरण में गुंजित होती
घंटी व घड़ियाल की नाद
अहसास कर रही
मानों पिताजी (पंडित जी)
अभी निकले हैं आरती कर

मंदिर के सामने खड़ा
नीम का पेड़
और/ उस पर लगती चौपालों की
यादें ताज़ा हो गई

चौपाल को देख लगा
अभी भी बैठे हैं
हाकमसिंह जी, रणछोड़सिंह जी,
रतनसिंह जी, उमरावसिंह जी
शंकरलाल जी
और कर रहे हैं
ग्राम विकास की बात

मंदिर की राधा-कृष्ण मूर्तियां
मानों कह रही हो
बहुत दिनों बाद रुख किया
तुमने गांव का

क्या भूल गए यहां की
मिट्टी की सौंधी महक
नदी की कल-कल
नीम,आम, बरगद के वृक्षों पर
होने वाली पक्षियों की चहचहाहट

या बलराम, भारतसिंह
करणसिंह, ईश्वरसिंह
विक्रमसिंह
के खेतों में सिके भुट्टों की महक

क्या तुम्हें याद नहीं
बनेसिंह, दशरथसिंह के गन्ने
और उससे बने ताज़े गुड़ की मिठास
धापू, रामू, कृष्णा,
भौमसिंह,भेरू, बापूसिंह के साथ
सावन के झूले

इतनी यादों के बाद भी
तुम कैसे भूल गए?
गांव की गालियाँ
गांव की सखियाँ
गांव की बगियाँ

क्या तुम्हें नहीं आती
इनकी याद?
क्या तुम्हें नहीं आती
गाँव की याद?

-संजय परसाई ‘सरल’
रतलाम (मप्र)
मोबा. 98270 47920
——
कृष्णा

कृष्णा अब तुम आ ही जाओ
धरती का अवलोकन कर लो
युग कौनसा है मत देखो
नारी को अब तुम बचाओ ।
गर नहीं आना हो तो
सुदर्शन चक्र ऊपर से चलाओ
“न धरी शस्त्र करी ” ऐसा नहीं करो
अब आओ तो शास्त्र भी चलाओ ।
केवल वस्त्र नहीं देना है
निर्वस्त्र होने से बचाओ
कृष्ण अब तुम आ जाओ ।

-अर्चना पंडित
इन्दौर (मप्र)
——
शब्द कच्चे हैं मगर….

मुझे अपने शब्दों की
अपरिपक्वता का भान
हर शब्द लिखने के बाद
होता ही है
सदैव ही से होता आया है
मुझे पढ़ने वाले भी
महसूस करते होंगे
ये कच्चापन
पर विश्वास करिए
भीतर से फूटे भाव
लिख लिया करती हूँ मैं
यदाकदा
भावों में सच्चाई होती है
शब्द भले ही साथ ना दें मेरा
पर मेरी कलम रोक नहीं पाती
भावों का प्रवाह
और बह जाते हैं वो
कागज़ पर
बहकर ही जैसे
चैन आता हो उन्हें
जितने भी कच्चे-पक्के, आधे-अधूरे, टूटे-फूटे
शब्द होते हैं उस समय
मन के शब्दकोष में
मैं सजाने की कोशिश करती हूँ
अपने भाव उन शब्दों से
और बह जाती हूँ
उन्हीं की लय में
यह जानते हुए कि
शब्द कच्चे हैं मगर
भाव सच्चे हैं मेरे……..!

-कविता सूर्यवंशी
रतलाम (मप्र)

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