ऐसी सादगी देखी नहीं कहीं….अति व्यस्ततम व्यक्ति जिला सूबेदार, परेशान ताला-चाबी बाबू, रेलवे में अनुशासन के ये दो साल
जलज शर्मा,
लघु जी की ऐसी सादगी लोगों को भा गई
प्रदेश भर में प्रोटोकॉल से घिरे रहने वाली केबिनेट के लघु जी की सादगी शहर के लोगों को भाने लगी है। जहां वर्तमान में रतलाम के प्रभार वाले मंत्री जी फूल प्रोटोकॉल व लाव लश्कर के साथ सड़कों पर निकलते है। उनके लिए सरकारी इंतजामों में कोई कोर कसर नहीं रहती। ऐसे में हमारे रतलाम सीट के ही लघु जी (भोपाल प्रभार वाले) नवरात्रि के दिनों में सादगी से इनोवा में घूमकर मेलजोल करते दिखाई दिए। निजी तौर पर मेल मिलाप करने शहर में निकले तो इनकी गाड़ी में एक भी सिक्योरिटी गार्ड नहीं दिखाई दिया। इस सादगी को देखना लोगों के लिए आश्चर्यजनक लेकिन सुखद लगा।
हे प्रभु, पहले कभी लाल बत्ती व सायरन के शौकीन रहे हमारे लघु जी को सबकुछ मिल गया। लगता है इससे मोहभंग हो चुका है।
अति व्यस्त हो गए फुलपार्टी के जिला सूबेदार
प्रदेश में सत्तारूढ़ फूलवाली पार्टी से संबद्ध हमारे रतलाम के सूबेदार (जिलाध्यक्ष) की अतिव्यस्तता अब जगजाहिर होने लगी है। पार्टी के कामकाज व प्रोटोकॉल का जबरदस्त दबाव इनके सिर पर आ पड़ा है। शहर में आगंतुक वरिष्ठ नेताओं के साथ इन्हें दौरा करना ही पड़ रहा है। बल्कि शहर में भी राजनीतिक के अलावा सामाजिक तालमेल बिठाना पड़ रहा है। रतलाम में स्टेशन रोड पर ‘मेंशन’ वाली बिल्डिंग से जुड़े आयोजनों में पहले पहुंचकर अनिवार्य रूप से शामिल होना पड़ता है। वहीं डालूमोदी बाजार में पहुंचकर इन्हें ‘हिम्मत की कीमत’ भी चुकानी पड़ती है। कोई आयोजन हो तो भागते-भागते इधर चौराहे पर भी आओ। गली में पार्टी दफ्तर पहुंचो तो हाफ आस्तीन के ‘मोदी कुर्ते’ में व तिलक लगाकर पहले से बैठे नए नेताओं को झेलो। फिर व्यायामशालाओं से फोन आ जाए तो भागते-भागते वहां पहुंचो। उन्हें भी मुंह दिखाओ।
हे प्रभु, सूबे के ऐसे पद से कद जरूर बढ़ जात है। मगर सबकी रखकर चलना पड़ता है। सबको लगना चाहिए कि हम उनके खास है।
मेला पार्किंग की वसूली से डरे, मंच की कुर्सियां भी हटाई
नवरात्रि में शहर का मुख्य आकर्षण कालिका माता मेला में पार्किंग ठेका की वैध के बाद अवैध वसूली की शिकायत क्या हुई। एक्शन में आए निगम अधिकारियों ने सांस्कृतिक मंच की भी उखाड़ पछड़ कर दी।
दरअसल ठेका शर्तों के मुताबिक दशहरे तक पार्किंग की सशुल्क व्यवस्था थी। इसके अगले दिन कार्रवाई का एक्शन कुछ हद तक ठीक था। मगर सांस्कृतिक मंच पर स्थानीय कलाकारों को दिन में मंजूरी देने बाद रात में कुर्सियां, दरी, साजसज्जा, साउंड के इंतजाम हटा लेना उचित नहीं लगा। बेचारे रतलाम के कलाकार मुंह ताकते रहे। हालांकि रोज की तरह श्रोता समय पर कार्यक्रम सुनने मंच के सामने जमा होना शुरू हो गए। ऐसे में आयोजकों ने आनन फानन एन वक़्त पर कुर्सियां लगवाई, दरी बिछवाई तथा और भी इंतजाम किए। तब कही जाकर कार्यक्रम शुरू हुआ। बाद में आक्रोशित कलाकारों ने निगम आयुक्त के नाम ज्ञापन देकर रोष जताया।
हे प्रभु, समझ से परे है। इन जिम्मेदारों को भी अक्ल दी जाए। यदि कार्यक्रम के लिए दिन में मंजूरी दी तो शाम को टीन टिम्बर क्यों हटा दिए।
शिकायतों से परेशान हो गए ताला-चाबी बाबू
रेलवे के ताला चाबी वाले बाबू अपनी लगातार शिकायतों से परेशान हो उठे है। झल्लाने भी लगे है। पिछले दिनों चतुर्थ श्रेणी युवती कर्मचारी ने शिकायत की थी। सोमवार को तो इनके अधीन चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की फ़ौज शिकायत करने विभाग प्रमुख के पास जा पहुंची। ड्रेसकोड को लेकर उनकी यह शिकायत भी आक्रोश भरी थी। महिला कर्मचारी केवल इस बात से खफ़ा थी कि उन्हें नियमित ड्रेसकोड में आने को धमकाते है। लेकिन बाबूजी खुद की पसंद के कर्मचारियों को इसकी हंसी खुशी छूट दे देते है। जब शिकायत हुई तो बाबूजी का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। खिल्लाते-झल्लाते बोल दिए कि तंग आकर मैं स्वयं कुछ कर लूंगा या कर डालूंगा। अब परेशान हो गया हूं।
हे प्रभु, ये शासकीय सेवा की गंभीरता को आज तक समझ नहीं पाए। जहां भी गए वहां बंटाढार ही किया।
हे प्रभु जगन्नाथम, ये सब क्या हो गया।
अनुशासन के ये दो साल, रेल मंडल प्रमुख ने सिखाए काम
रेल मंडल के रतलाम मुख्यालय पर मौजूदा दो साल कर्मचारियों के साथ अधिकारियों के लिए अनुशासन भरे रहे है। मंडल प्रमुख की सख्त प्रशासनिक कार्यशैली में लगता अब सभी रमने लगे है। ट्रेनों के साथ मंडल कार्यालय के कामकाज भी समयबद्ध तरीके से होते आए। दो साल में एक माह या एक दिन भी ऐसा नहीं रहा कि कसावटभरा न हो। मज़बूरी भी कहें कि हजारों यात्रियों को समय पर सुरक्षित गंतव्य तक पहुंचना जो है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग मिटिंगों से मोनिटरिंग का फार्मूला रेलवे में कारगर साबित हुआ। यही वजह है कि अफसरों के साथ मिटिंगों की समय सीमा ढाई से चार घंटे तक पहुंच जाती है। बेचारे मीटिंग में बैठने वाले उकता जाते है। हाथ नीचे कर जैसे-तैसे मोबाइल फोन देख लेते है। प्रसाधन के बहाने ही सही, हवा खाने मीटिंग कक्ष से बाहर निकल निकल कर आने-जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता है। आखिर मीटिंग में पूरे टाइम बैठना जो है।
हे प्रभु, ऐसी कसावट सालों तक जारी रहे तो रेलवे का भला होना तय है।